प्रयागराज : विवाह-विच्छेद मामलों में पुनरीक्षण या अपील लंबित रहने पर भी भरण-पोषण स्वीकार्य
प्रयागराज, अमृत विचार : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत भरण-पोषण और मुकदमे के खर्च का दावा पुनरीक्षण, अपीलीय चरण या बहाली की लंबित कार्यवाही के दौरान भी स्वीकार्य है।इस प्रावधान का उद्देश्य आर्थिक रूप से कमज़ोर पक्ष को वित्तीय सहायता देकर उसे न्याय पाने का अवसर देना है, ताकि वह केवल आर्थिक अभाव के कारण वंचित न रह जाए। उक्त आदेश न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम की एकलपीठ ने अंकित सुमन की याचिका को खारिज करते हुए पारित किया। मामले के अनुसार पत्नी को हाईकोर्ट ने 10,000 रुपये प्रति माह...
प्रयागराज : विवाह-विच्छेद मामलों में पुनरीक्षण या अपील लंबित रहने पर भी भरण-पोषण स्वीकार्य
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प्रयागराज, अमृत विचार : इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय जारी किया है जिसमें स्पष्ट किया गया है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 के तहत भरण-पोषण और मुकदमे के खर्च का दावा भले ही पुनरीक्षण, अपीलीय चरण या बहाली की लंबित कार्यवाही के दौरान हो, तब भी स्वीकार्य है। यह आदेश न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम की एकलपीठ द्वारा पारित किया गया है, जिसने अंकित सुमन की याचिका को खारिज कर दिया।
आर्थिक सहायता का उद्देश्य
इस प्रावधान का मुख्य उद्देश्य आर्थिक रूप से कमजोर पक्ष को वित्तीय सहायता प्रदान करना है ताकि वह न्याय पाने का अवसर खो न दे। कोर्ट ने जोर दिया कि भरण-पोषण के अधिकार को सिर्फ आर्थिक स्थिति से नहीं आंका जा सकता। अगर कोई पक्ष आर्थिक रूप से कमजोर है और उसे केवल आर्थिक अभाव के कारण न्याय से वंचित नहीं होना चाहिए। ऐसा कहना है कोर्ट का, जो कानून को मानवता की दृष्टि से देखता है।
मामले का विवरण
मामला यह है कि पत्नी को हाईकोर्ट ने 10,000 रुपये प्रति माह भरण-पोषण और नाबालिग बेटी को 10,000 रुपये (जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा घटाकर 5,000 रुपये कर दिया गया था) मासिक भरण-पोषण और 30,000 रुपये मुकदमे के खर्च के रूप में देने का आदेश दिया था। पति द्वारा राशि का भुगतान न करने पर पत्नी ने 2.5 लाख रुपये की वसूली के लिए निष्पादन वाद दाखिल किया, जिसे पारिवारिक न्यायालय, पीलीभीत ने स्वीकार किया।
कैसे हुई अपील
पति ने अनुच्छेद 227 के तहत वर्तमान याचिका के माध्यम से इस फैसले को चुनौती दी, जिस पर हाईकोर्ट ने विचार करते हुए इसे खारिज कर दिया। इस निर्णय ने स्पष्ट किया कि आर्थिक ताकत किसी मामले की गुणवत्ता का निर्धारक नहीं हो सकती और यदि कोई पक्ष आर्थिक रूप से कमजोर है, तो वह भरण-पोषण का हकदार हो सकता है।
महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा
इस फैसले से यह भी स्पष्ट होता है कि आर्थिक स्थिति को देखकर न्याय नहीं किया जा सकता। खासकर महिलाओं के मामलों में, जहां अधिकतर उन्हें भरण-पोषण के लिए संघर्ष करना पड़ता है। अदालत का यह निर्णय समाज में न्याय की नई परिभाषा को स्थापित करता है और महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक सशक्त कदम माना जा रहा है।
निष्कर्ष
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला न केवल वैवाहिक मामलों में न्याय की तरजीह देने वाला है, बल्कि यह दर्शाता है कि लोग किस प्रकार से आर्थिक स्थिति के बावजूद न्याय प्राप्त कर सकते हैं। विवाह-विच्छेद की प्रक्रिया में इस तरह के निर्णय समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में सहायक होंगे।
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संपादित: टीम नेटआनागरी
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