कांग्रेस के बाद क्षेत्रीय दलों में भी पतन का दौर

देश की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी का उभार और कांग्रेस सहित कई क्षेत्रीय दलों का पतन काफी कुछ कहता है। भले ही हार से बौखलाए मोदी और बीजेपी विरोधी नेता चुनाव में धांधली का आरोप लगा रहे हों ? सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग की बात करते हों ? लेकिन ऐसा नहीं है कि विरोधियों को अपनी राजनैतिक कमजोरी और सियासी अपरिपक्वता का अहसास नहीं है,लेकिन बार-बार पराजित हो रहे यह नेता सच्चाई स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। जबकि सच्चाई यह है कि बीजेपी को छोड़कर देश की किसी भी राजनैतिक दल में लोकतांत्रिक व्यवस्था ही नहीं है। इसमें देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस सहित बहुजन समाज पार्टी,समाजवादी पार्टी,राष्ट्रीय जनता दल, बीजू जनता दल,उद्धव ठाकरे की शिवसेना,शरद पवार की एनसीपी, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों की लम्बी चौड़ी लिस्ट हैं। अब इसमें नया नाम कट्टर ईमानरदार ‘आम आदमी पार्टी’ का भी जुड़ गया है।  इसे भी पढ़ें: भगवंत मान ने बताया, केजरीवाल ने बुलाई क्यों AAP विधायकों की मीटिंग, पंजाब मॉडल का भरा दमहालांकि आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली हार के लिये अभी तक ईवीएम मशीन या सरकारी मशीनरी पर किसी तरह की धांधली का आरोप नहीं लगाया है,जबकि उसी समय उत्तर प्रदेश में अयोध्या की चर्चित मिल्कीपुर विधान सभा सीट पर मिली जबर्दस्त हार के बाद समाजवादी पार्टी का प्रलाप लगातार जारी है। ऐसा ही प्रलाप कांग्रेस अध्यक्ष खरगे,नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, सहित उनकी पार्टी के तमाम नेता भी करते रहते हैं। हालात यह है कि हार से बौखला कर मोदी विरोधी नेता उन्हें(मोदी) और बीजेपी को ही नहीं चुनाव आयोग,सीबीआई,ईडी जैसी एजेंसियों के खिलाफ भी भड़ास निकालते रहते हैं। यह नेता मोदी को नीचा दिखाने के लिये देश की छवि भी खराब करने से नहीं चूकते हैं। इसमें विदेश से पढ़ाई करके आने वाले टेक्नोटेक सपा प्रमुख अखिलेश यादव और आईआरएस रह चुके अरविंद केजरीवाल जैसे पढ़े लिखे नेता शामिल हैं तो बिहार में लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव भी आरोप-प्रत्यारोप वाली सियासत से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं।दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने अपनी आभा को एकदम मटियामेट कर दिया है. जो केजरीवाल 12 साल पहले यूथ आइकॉन बनकर उभरे थे, वे अब धूल में लथपथ पड़े हैं. विधान सभा में ‘दिल्ली का मालिक मैं हूं‘ जैसे अहंकारी बयान देने वाले और हरियाणा सरकार पर यमुना नदी में जहर मिलाने का आरोप लगाकर अपनी फजीहत करा चुके अरविंद केजरीवाल दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य का मुख्यमंत्री रहने के बाद प्रधानमंत्री का ख्वाब देखने लगे थे मगर अब वे विधायकी भी गंवा बैठे। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है, कि अरविंद जिस तेजी से राजनीति में चमके थे उसी तत्परता से औंधे मुंह जा गिरे। अब उनका कोई भविष्य नहीं है और इसकी वजह है उनका बड़बोलापन और भरोसे की राजनीति न करना एवं उनकी अवसरवादिता। दिल्ली  में अरविंद केजरीवाल से अधिक भद्द राहुल गांधी की पिटी है। पिछले कई चुनावों से दिल्ली में शून्य सीटों का रिकॉर्ड राहुल गांधी और कांग्रेस के नाम दर्ज है। इसे भी पढ़ें: अमानतुल्लाह खान के घर पहुंची दिल्ली पुलिस, समर्थकों पर कस्टडी से आरोपी को छुड़वाने का आरोपअरविंद केजरीवाल की तरह ही नेताजी मुलायम सिंह यादव की राजनैतिक विरासत संभाले हुए अखिलेश यादव की है। 2012 के विधानसभा चुनाव जीतने के बाद तत्कालीन सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अपनी जगह अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था,जबकि अनुभव के नाम पर अखिलेश खाली हाथ थे। इसके बाद अखिलेश यादव अपने दम पर भले ही राजनीति में कुछ खास नहीं कर पाये हों,लेकिन उनके बड़बोलेपन और अपनी हार का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ने की महारथ के चलते खूब नाम कमा रहे हैं।विवादित बयानबाजी की बात की जाये तो अखिलेश यादव अपने अयोध्या के सांसद अवधेश प्रसाद को अयोध्या का नया राजा कहकर प्रभु श्रीराम और उनके भक्तों का उपहास उड़ाने के चक्कर में खुद फजीहत करा बैठते हैं। उन्हें ट्रॉफी की तरह अपने साथ लेकर घूमते थे,लेकिन मिल्कीपुर विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद अखिलेश अपने होश खो बैठे हैं। सपा नेता हार से इतना बौखला गये हैं कि पार्टी के महासचिव प्रो रामगोपाल यादव तो यूपी के सरकारी अधिकारियों को ही नसीहत देने लगे हैं कि वह मुख्यमंत्री योगी जी का आदेश सुनने की बजाये उन्हें  नसीहत दें। अखिलेश यादव से लेकर शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव हताशा में डूबते जा रहे हैं। रामगोपाल तो अयोध्या में रामलला के मंदिर को भी बेकार कह चुके हैं। सपा के तमाम नेता महाकुंभ में कथित अव्यवस्था को लेकर भी लगातार सीएम पर हमलावर  हैं,लेकिन इससे समाजवादी पार्टी को हासिल क्या हो रहा है,यह प्रश्न चिन्ह बना हुआ है।क्योंकि समाजवादी पार्टी का पीडीए पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है। मिल्कीपुर में तो सपा को यादवों तक का वोट नहीं मिला।

Feb 11, 2025 - 15:37
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कांग्रेस के बाद क्षेत्रीय दलों में भी पतन का दौर
कांग्रेस के बाद क्षेत्रीय दलों में भी पतन का दौर

कांग्रेस के बाद क्षेत्रीय दलों में भी पतन का दौर

Netaa Nagari

लेखक: साक्षी शर्मा, टीम नेटानागरी

परिचय

भारतीय राजनीति में इस समय एक महत्वपूर्ण मोड़ आ चुका है। जहाँ एक ओर कांग्रेस पार्टी अपने अनुभवों से जूझ रही है, वहीं क्षेत्रीय दलों में भी पतन का दौर देखने को मिल रहा है। यह घटनाक्रम भारतीय लोकतंत्र के लिए एक नई चुनौती पेश कर रहा है। कैसे इन राजनीतिक दलों का पतन हो रहा है, इससे समाज पर क्या असर पड़ेगा, आइए जानते हैं।

कांग्रेस के पतन की कहानी

कांग्रेस पार्टी, जो पिछले कुछ दशकों से भारतीय राजनीति में धुरीpunt रही है, अब खुद को चुनावों में एक कठिन स्थिति के बीच पाती है। अनेकों राज्यों में इसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। पार्टी के भीतर नेतृत्व के संकट और आंतरिक कलह ने इसे और भी कमजोर किया है। एक समय था जब कांग्रेस ने देश के कई महत्वपूर्ण फैसलों में नेतृत्व किया था, लेकिन अब स्थिति बिल्कुल भिन्न है।

क्षेत्रीय दलों का पतन

कांग्रेस के पतन के बाद अब क्षेत्रीय दल भी अपनी स्थिति बनाए रखने में असफल साबित हो रहे हैं। कई जगहों पर इन दलों का भी अस्तित्व संकट में है। जैसे कि टीआरएस, जेडीयू और एनसीपी जैसे दलों को हाल के चुनावों में निराशा का सामना करना पड़ा है। इन दलों की ज़मीनी दर पर पकड़ कमजोर हो रही है और जनता का विश्वास इनसे उठता जा रहा है।

राजनीतिक परिदृश्य पर प्रभाव

राजनीतिक परिदृश्य के बदलते स्वरूप से यह स्पष्ट होता है कि यदि क्षेत्रीय दल भी अपनी रणनीतियों में परिवर्तन नहीं लाते हैं, तो राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है। इस समय भाजपा के बढ़ते प्रभाव के सामने, क्षेत्रीय दलों को अपनी स्थानीय राजनीति को समझने और जनता के साथ जुड़ने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

कांग्रेस के बाद क्षेत्रीय दलों में भी जारी यह पतन का दौर भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है। यदि ये दल जल्दी ही अपने ढांचे में सुधार नहीं करते हैं, तो आने वाले दिनों में वे और भी कमजोर होते जाएंगे। भारतीय राजनीति में नई चुनौतियाँ सामने आ रही हैं, और इनसे निपटना क्षेत्रीय दलों के लिए एक बड़ी परीक्षा होगी।

अंत में, यह स्पष्ट है कि राजनीतिक परिवर्तन असामान्य नहीं है, लेकिन इसका सामना करना हर दल की जिम्मेदारी है। हमें उम्मीद है कि क्षेत्रीय दल भी अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जल्दी ही गेम प्लान बनाेंगे।

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