जब द्विराष्ट्र सिद्धांत पर पाकिस्तान अटल, तो भारत ढुलमुल क्यों और कबतक हिन्दू चुकाएंगे इसकी कीमत!
जब द्विराष्ट्र सिद्धांत पर 1947 में भारत विभाजन अधिनियम द्वारा भारत से पाकिस्तान को दो हिस्सों में अलग कर दिया गया, तब भारत के सुप्रीम कोर्ट ने इसका विरोध क्यों नहीं किया, यक्ष प्रश्न है! वहीं, जब भारत के तत्कालीन क्षुद्र राजनेताओं ने हिन्दू राष्ट्र की जगह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का गठन किया, तब भी सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल क्यों नहीं उठाया, यह दूसरा ज्वलंत प्रश्न है।.....और आज जब भारत में मुसलमानों द्वारा पुनः हिंदुओं को जगह-जगह प्रताड़ित किया जा रहा है, लक्षित सांप्रदायिक दंगे किये जा रहे हैं जिससे 1947 के पूर्व की विभाजनकारी परिस्थितियों की यादें तरोताजा हो जाती हैं और भारत के राजनेता इस पर अपनी-अपनी सियासी रोटियां सेंक रहे हैं, जिससे भारतीय प्रशासन भी किंकर्तव्यविमूढ़ बना रहता है, तो ऐसे में सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान नहीं लेकर न्यायपूर्ण दिशा निर्देश क्यों नहीं दे रहा है, यह तीसरा सुलगता हुआ सवाल है। दरअसल, यह बात मैं इसलिए उठा रहा हूँ कि सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय दिया है कि भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को भारतीय संसद भी नहीं बदल सकती है। क्योंकि भारतीय संविधान की यही मूल भावना है। लेकिन जब हमारी तत्कालीन संसद ने मूर्खतापूर्ण निर्णय लिए, और उसी ने भारतीय संविधान में भी 'हिन्दू विरोधी कानून' जड़ दिए, तब इसमें तल्ख इतिहास और सुलगते हुए वर्तमान के दृष्टिगत सुप्रीम कोर्ट से न्यायसंगत और दूरदर्शिता पूर्ण हस्तक्षेप की उम्मीद नहीं की जाए तो फिर किससे की जाए, यह भी एक यक्ष प्रश्न है। ऐसा इसलिए कि हमारी संसद में हिन्दू नहीं बल्कि दलित, ओबीसी, सवर्ण और अल्पसंख्यक नेता बैठे हैं। पिछले लगभग 8 दशकों के इनके फैसलों से यह जाहिर हो रहा है कि 'हिन्दू भारत' के अस्तित्व को खास धर्म के आधार पर पाकिस्तान, पूर्वी पाकिस्तान यानी बंगलादेश, चीन आदि देशों के द्वारा वैमनस्यता पूर्ण चुनौती दी जा रही है, कभी आतंकवाद, कभी नक्सलवाद, कभी संगठित अपराध और तस्करी के माध्यम से भारतीयों को अशांत बनाया जा रहा है, लेकिन इन सबके खिलाफ इनके ठोस नीतिगत निर्णय कभी नहीं आए, जिससे हिंदुओं का भविष्य अपने ही देश में अधर में लटक चुका है। लिहाजा भारतीय कार्यपालिका की विफलता के बाद सर्वोच्च न्यायपालिका से स्वतः संज्ञान लेकर स्थिति को बदलने की अपेक्षा यदि नहीं की जाए, तो फिर किससे की जाए, सुलगता हुआ सवाल है।इसे भी पढ़ें: अब पाकिस्तान का सही, पक्का और स्थाई इलाज जरूरीवह भी तब, जब पाकिस्तानी जनरल और नेता बात-बात में कौम की बात करके भारत के मुसलमानों को भड़काने की कोशिश करते आए हों। वहीं भारत के कतिपय मुसलमान भी खुलेआम पाकिस्तानियों, बंगलादेशियों और आतंकियों के यशोगान पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की शह पर कर रहे हों, जैसा कि मीडिया रिपोर्ट्स से पता चलता है। ऐसे में इन देशद्रोहियों के खिलाफ स्पष्ट कानून का अभाव भी हिंदुओं को खटकता रहता है। देश में बढ़ती आतंकवादी घटनाएं, नक्सली घटनाएं और अंडरवर्ल्ड के संगठित अपराध और तस्करी की घटनाएं हिंदुओं की इस चिंता को और भी इसलिए बढ़ाती हैं, क्योंकि इन सबकी कमान पाकिस्तान में बैठे अंडरवर्ल्ड सरगना दाऊद इब्राहिम जैसे खूंखार लोगों के हाथों में है। पुलवामा के बाद पहलगाम आतंकी हिंसा की कहानी बिना कुछ कहे सब कुछ बता जाती है।दरअसल, पाकिस्तान के स्वप्नद्रष्टा और निर्माता कायदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना का 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' यह था कि भारतीय मुसलमान और हिंदू दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, जिनके अलग-अलग धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाज और जीवन शैली हैं। यह सिद्धांत 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में जिन्ना द्वारा प्रस्तुत किया गया था, और इसे ही भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण का आधार बनाया गया। क्योंकि द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की अवधारणा के अनुसार, हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं और उन्हें अलग-अलग देशों में रहने की आवश्यकता है। तब जिन्ना ने तर्क दिया कि भारत में मुसलमानों को हिंदुओं के साथ मिलकर रहने में कठिनाई होगी, क्योंकि उनके धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में बहुत अंतर है।उल्लेखनीय है कि द्विराष्ट्र सिद्धांत का उदय 1930 के दशक में हुआ, जब भारत में मुस्लिम लीग ने एक अलग मुस्लिम राष्ट्र की मांग करना शुरू कर दिया। तब जिन्ना और मुस्लिम लीग के अन्य नेताओं ने तर्क दिया कि भारत में मुसलमानों को हिंदुओं के साथ मिलकर एक राष्ट्र में रहने में कठिनाई होगी क्योंकि वे दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। लिहाजा, द्विराष्ट्र सिद्धांत ने भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1947 में, भारत को दो देशों में विभाजित किया गया, जिसे आज भारत और पाकिस्तान कहा जाता है। तब पाकिस्तान एक ऐसा देश था जो विशेष रूप से मुसलमानों के लिए बनाया गया था।हालांकि, द्विराष्ट्र सिद्धांत की आलोचना की गई है, क्योंकि कुछ लोगों का मानना है कि यह धार्मिक विभाजन का एक साधन था जो भारत के विभाजन का कारण बना। कुछ लोगों का मानना है कि द्विराष्ट्र सिद्धांत ने भारत में धार्मिक तनाव और संघर्ष को भी बढ़ावा दिया। क्योंकि द्विराष्ट्र सिद्धांत एक विवादास्पद सिद्धांत है जिसने भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह सिद्धांत भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक विभाजन का एक प्रतीक है, और यह आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का एक कारण है। ऐसे में भारत को हिन्दू राष्ट्र का दर्जा दिया जाना बदलते हुए वक्त की मांग है और इस दिशा में बरती गई कोई भी लापरवाही भारतीय संविधान, विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया का मौलिक चरित्र एक झटके में बदल देगी, क्योंकि यहां दिन प्रतिदिन मजबूत होता जा रहा मुस्लिम समाज जब बहुसंख्यक होकर प्रभुत्व में आ जाएगा तो फिर पाकिस्तान और बंगलादेश की तरह सरिया कानून यहां भी थोपा जाएगा। ऐसे में भारत के नेतृत्व को तत्काल आवश्यक कदम उठाने होंगे और यह कार्य बिना सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के असंभव है, क्य

जब द्विराष्ट्र सिद्धांत पर पाकिस्तान अटल, तो भारत ढुलमुल क्यों और कबतक हिन्दू चुकाएंगे इसकी कीमत!
Netaa Nagari
लेखक: साक्षी शर्मा, टीम नेतानगरी
परिचय
हाल ही में द्विराष्ट्र सिद्धांत पर पाकिस्तान के दृढ़ रुख ने एक बार फिर से भारत की आंतरिक और बाह्य नीति पर सवाल उठा दिए हैं। क्या हम अपने हिन्दू नागरिकों की सुरक्षा को लेकर सच में सजग हैं, या हम सिर्फ संवेदनशील मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं? इस भारत-पाकिस्तान की राजनीति में अब संघीय और सामाजिक दोनों स्तरों पर एक सशक्त विवेचना की आवश्यकता है।
द्विराष्ट्र सिद्धांत का इतिहास
द्विराष्ट्र सिद्धांत, जो कि पाकिस्तान के निर्माण का आधार रहा, आज भी उस देश की राजनीति में एक केंद्रीय विषय बना हुआ है। पाकिस्तान ने हमेशा इस सिद्धांत से खुद को जोड़े रखा है और भारतीय मुसलमानों का एक अल्पसंख्यक समूह बनाकर अपने अस्तित्व को संवर्धित करने का प्रयास करता रहा है।
भारत की ढुलमुल नीति
भारत ने पाकिस्तान के द्विराष्ट्र सिद्धांत का जवाब देने के लिए कभी भी एक ठोस नीति नहीं बनाई। हमारी सरकारें कई बार इसके खिलाफ बोल चुकी हैं, लेकिन उन बयानों का असल प्रभाव क्या होता है? प्रश्न यह है कि क्या हम केवल बयानबाजी तक सीमित रह गए हैं?
भले ही भारतीय राजनीति में कई बदलाव आए हैं, लेकिन हमारे समाज के भीतर जागरूकता की कमी ने Pakistan की मांगे बढ़ा दी हैं। क्या हमारी प्रतिक्रिया केवल आंतरिक सुरक्षा तक सीमित है, या हमें इसे एक राष्ट्रीय मुद्दा समझकर सशक्त बनाना चाहिए?
हिंदू समुदाय की कीमत
भारत के हिन्दू नागरिकों को कई बार धार्मिक आधार पर असुरक्षा का सामना करना पड़ा है। पाकिस्तान के द्विराष्ट्र सिद्धांत को लेकर हमारी मौन सहमति उन्हें एक असुविधाजनक स्थिति में डाल रही है। कब तक हमें समझौते करने होंगे, जबकि हमें अपने अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए? क्या यह उचित है कि हम अपनी पहचान की कीमत चुका रहे हैं?
संभावित समाधान
हमें अब एक ठोस नीति की आवश्यकता है जो न केवल हमारे नागरिकों की सुरक्षा को सुनिश्चित करे, बल्कि हमारे राष्ट्रीय चरित्र को भी संरक्षित करे। इसके लिए हमें एकजुट होकर काम करने की जरूरत है। सबसे पहले हमें द्विराष्ट्र सिद्धांत की मौलिकता पर फिर से विचार करना होगा और एक ऐसा गवर्नेंस माडल बनाना होगा जो सभी नागरिकों की आवाज़ को सुन सके।
निष्कर्ष
द्विराष्ट्र सिद्धांत पर पाकिस्तान के अटल रुख को नजरअंदाज करना भारत के लिए आत्ममंथन का विषय है। हम कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी एक सुरक्षित और सशक्त भारत में जी सके? अब समय है कि हम एक ठोस दिशा में आगे बढ़ें और अपने मुद्दों को संबोधित करें।
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Keywords
India, Pakistan, Two-nation theory, Hindu Rights, National security, Indian Politics, Religious safety, Governance model, Social awareness, Citizen safetyWhat's Your Reaction?






