हे माननीय! आप खुद ही बता दीजिए कि विगत लगभग आठ दशकों की आपकी खता क्या-क्या है? जानना चाहते हैं लोग!

चाहे संसद हो या सर्वोच्च न्यायालय, 'निर्जीव' भारतीय संविधान के ये दो 'सजीव' पहरेदार अब खुद ही श्वेत पत्र जारी करके आमलोगों को बता दें कि विगत लगभग आठ दशकों की नीतिगत लापरवाहियों और प्रशासनिक-न्यायिक विफलताओं के लिए आखिर कौन-कौन और कितना-कितना जिम्मेदार है? क्योंकि तमाम तरह की नीतिगत उलटबांसियों की अब हद हो चुकी है, देशवासी निरंतर असुरक्षित होते जा रहे हैं और वीवीआइपी सुरक्षा से लैस लोगों को हर जगह तंगहाली नहीं, हरियाली दिखाई दे रही है। इसलिए अब भारतीय संविधान को वकीलों का स्वर्ग बनाए रखने की जिम्मेदारी किसी को भी और अधिक नहीं दी जा सकती है!दरअसल, देशवासियों को यह जानने-समझने का हक है कि आखिर पूरे देश में समान मताधिकार की तरह राष्ट्रीय कानूनी और सामाजिक-आर्थिक समानता स्थापित करने और जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र-लिंग-वर्ग भेद मुक्त धर्मनिरपेक्ष व समतामूलक समाज बनाने की दिशा में इन दोनों संस्थाओं का क्या और कितना-कितना योगदान है? वहीं, यक्ष प्रश्न यह भी है कि क्या अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अत्यंत पिछड़े वर्गों, जातीय-भाषाई-धार्मिक अल्पसंख्यकों, गरीब सवर्णों के लिए अलग-अलग कानून बनाने की सोच निरर्थक नहीं है और धर्मनिरपेक्ष भारत में एक समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रशासनिक साहस यदि हमारी संसद या सुप्रीम कोर्ट में नहीं है तो फिर उनके होने या न होने का क्या अर्थ रह जाता है?इसे भी पढ़ें: अदालतों से फटकार खाकर भी नहीं सुधर रही देश की पुलिसमसलन, एक संवेदनशील और प्रगतिशील पत्रकार के रूप में यह बात मैं इसलिए उठा रहा हूँ कि भारतीय संविधान के नाम पर समस्त देश में विधि-व्यवस्था बनाए रखने और उसकी निष्पक्ष समीक्षा करने की जिम्मेदारी इन्हीं दोनों संस्थाओं की है, जिसके लिए इन्हें लोगों की गाढ़ी कमाई से मोटी रकम भी मुहैया करवाई जाती है। बावजूद इसके ये दोनों संस्थाएं सही और स्पष्ट बात बोलने की बजाए गोल-मटोल, द्विअर्थी और बहुमत समर्थक जनविरोधी मुगलिया और ब्रितानी दृष्टिकोण को आजाद भारत में आगे बढ़ा रही हैं, जिसे कोई भी दूरदर्शी व प्रबुद्ध समाज स्वीकार नहीं कर सकता! क्योंकि सारे विवाद की जड़ वही अव्यवहारिक नीतियां हैं जो मुगलों और अंग्रेजों के अस्तित्व को खत्म करके अब शांतिप्रिय भारतीय नागरिकों के भविष्य को दीमक मानिंद चाट रही हैं? सच कहूं तो यदि इस तल्ख सच्चाई समझने की बुद्धि आपलोगों में नहीं है तो यह आईने की तरह साफ है कि इस विविधतापूर्ण देश में शासन करने योग्य आपलोग हैं ही नहीं! कड़वा सच है कि इस देश की तमाम संसदीय बहसों और तल्ख न्यायिक टिप्पणियों से वह प्रशासनिक सुधार दृष्टिगोचर नहीं हुआ है, जैसा कि भारत जैसे सुलझे हुए देश से अपेक्षा की जाती है। अब भले ही न्यायिक अतिरेक की प्रवृति पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, गोड्डा सांसद निशिकांत दूबे, यूपी के पूर्व उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा आदि ने सवाल उठाए हैं। इनलोगों ने जो बातें उठाई हैं, वह एकपक्षीय जरूर हैं, लेकिन हमारी दुःखती हुई रग को दबाने के लिए काफी हैं। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी इस देश की न्यायिक प्रवृत्ति पर टिप्पणी कर चुकी हैं? किसी जनप्रतिनिधि का निर्वाचन रद्द करने अधिकार किसी भी न्यायालय को देना लोकतांत्रिक मूर्खता है! संसद और मंत्रिमंडल के फैसले को पलट देना भी न्यायिक अतिरेक है। लेकिन यह नौबत भी इसलिए आई कि नेहरू से लेकर मोदी तक कोई पाकसाफ राजनेता नहीं आया। सबने जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र के लोकतांत्रिक नाले में डुबकी लगाई और लोकतांत्रिक गंगा स्नान का ऐलान करके सियासी मोक्ष पाने का डंका पीट दिया, क्योंकि दोबारा-तिबारा चुने गए। लेकिन जनता का दुःख-दर्द दूर नहीं हुआ। सबने पूंजीवादी हितों की पैरोकारी की, प्रशासनिक हितों को आगे बढ़ाया और आमलोगों के सुख-शांति की कतई परवाह नहीं की, अन्यथा ब्रेक के बाद दंगा, भीड़ का उन्माद, मुनाफाखोरी कहीं नजर नहीं आती। इसलिए संसदीय तानाशाही भी अस्वीकार्य है! संविधान की नौवीं अनुसूची की कोई जरूरत नहीं है। सामाजिक न्याय के नाम पर जातिगत अन्याय को बढ़ावा देना नीतिगत मूर्खता है। अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का दृष्टिकोण प्रशासनिक अदूरदर्शिता है, इससे ज्यादा कुछ नहीं।सीधा सवाल है कि क्या इन्हीं सब दुर्दिन को दिखाने के लिए न्यायिक अवमानना और संसदीय विशेषाधिकारों से इन्हें लैस किया गया है? आखिर सर्वोपरि जनता की अवमानना और आमलोगों के विशेषाधिकार यानी मानवाधिकार की हर जगह उड़ रही धज्जियों के बारे में कौन सोचेगा, जरा आपलोग खुद ही अपने-अपने ठंडे दिमाग से सोचिए।ऐसे में सुलगता हुआ सवाल है कि विगत लगभग आठ दशकों की नीतिगत लापरवाहियों और प्रशासनिक-न्यायिक विफलताओं का ठीकरा यदि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबरपालिका के सर पर नहीं फोड़ा जाए, तो फिर ये लोग ही सामूहिक रूप से बता दें कि आखिर इस बात का ठीकरा किसके सर पर फोड़ा जाए। क्योंकि समकालीन राष्ट्रीय परिस्थिति दिन-प्रतिदिन विकट होती जा रही है। जिन बातों को लेकर 1947 में भारत विभाजन हुआ, वही बात आजाद भारत के हिस्से में पुनः उठना कितनी शर्मनाक है! क्या मुट्ठी भर नेताओं के सत्ता सुख के लिए करोड़ों देशवासियों के सुख-शांति में आग लगाई जा सकती है? लेकिन दुर्भाग्यवश यहां वही हो रहा है!एक सवाल और, जब समाजवादी लोकतंत्र को पूंजीवादी लोकतंत्र में तब्दील किया जा रहा था, तब जनमानस को जो आशंकाएं थीं, वह आज सही साबित हो रही हैं। क्या पूंजीपतियों के बेहिसाब मुनाफे के लिए आम आदमी के हितों की बलि चढ़ाई जा सकती है? लेकिन समकालीन पूंजीपतियों के गुणवत्ताहीन और मिलावटखोर जनद्रोही रूख और प्रशासनिक लीपापोती की भावना के बीच यह सवाल सबको मथ रहा है कि आखिर इसका जनहितकारी समाधान क्या है और इसे अविलम्ब निकलवाने की जिम्मेदारी किसकी है? आखिर जनशोषन कब और कौन सा विस्फोटक रूख अख्तियार करेगा, अब कोई नहीं जानता। ऐसी कोई नौबत न आए, इसलिए एलर्ट हो जाइए। अपने पड़ोसियों की हालत देखिए!- कमलेश पांडेयवरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

Apr 23, 2025 - 16:37
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हे माननीय! आप खुद ही बता दीजिए कि विगत लगभग आठ दशकों की आपकी खता क्या-क्या है? जानना चाहते हैं लोग!
हे माननीय! आप खुद ही बता दीजिए कि विगत लगभग आठ दशकों की आपकी खता क्या-क्या है? जानना चाहते हैं लोग!

हे माननीय! आप खुद ही बता दीजिए कि विगत लगभग आठ दशकों की आपकी खता क्या-क्या है? जानना चाहते हैं लोग!

लेखक: निधि शर्मा, टीम नेतानगरी

लेखक: साक्षी वर्मा, टीम नेतानगरी

परिचय

भारत का लोकतंत्र, जो कि लगभग आठ दशकों की यात्रा में कई उतार-चढ़ाव देख चुका है, आज फिर से एक महत्वपूर्ण मुहूरत पर खड़ा है। जन प्रतिनिधियों से उनके कार्यों और नीतियों की समीक्षा की अपेक्षा समाज की एक मौलिक आवश्यकता बन चुकी है। क्या आपने कभी सोचा है कि जन सेवा में लगे नेता अपनी स्वयं की खता के बारे में क्या सोचते हैं? चलिए, जानते हैं कि जनता उनके कार्यों को किस दृष्टिकोण से देखती है।

अधिकारी या जन सेवक?

नेताओं का कर्तव्य केवल चुनाव जीतना नहीं है, बल्कि जनता की आवश्यकताओं का ध्यान रखना भी है। विगत आठ दशकों में कई सरकारें आईं और गईं, समाज में आर्थिक विषमताएँ बढ़ी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति में सुधार की आवश्यकता अधिक हो गई। लेकिन क्या हर नेता ने अपने कार्यों पर श्वेत पत्र प्रस्तुत किया है? क्या लोग संतुष्ट हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो हर नागरिक के मन में उठते हैं।

जनता का दृष्टिकोण

इस समय, नेताओं के कार्यों की समीक्षा केवल राजनीतिक दलों तक ही सीमित नहीं रह गई है। सोशल मीडिया पर नागरिक अपनी बात रख रहे हैं। कई ऐसे मुद्दे हैं जो उदासीनता से भरे हुए प्रतीत होते हैं - जैसे कि बेरोजगारी, शिक्षा का गिरता स्तर और समय-समय पर होने वाली धनराशि की सेंधमारी। क्या ये सभी संघर्ष इन नेताओं की 'खता' के रूप में माने जाएंगे?

आधुनिक युग की चुनौतियाँ

वास्तविकता यह है कि समय-समय पर हर नेता को अपने कार्यों और नीतियों का आत्म-मंथन करना चाहिए। वे अपने कार्यों से जनता को एक निश्चित दिशा देते हैं। लेकिन यदि वे अपनी खता के बारे में सवालों का सामना नहीं करेंगे, तो शायद उन्हें अपने पद पर बने रहना मुश्किल हो जाएगा। उदाहरण के लिए, शिक्षा क्षेत्र में सुधार लाना और स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाना आज की सबसे प्रमुख आवश्यकता है।

निष्कर्ष

तो, हे माननीय! आप खुद ही बता दीजिए कि विगत लगभग आठ दशकों की आपकी खता क्या-क्या है? जनता जानना चाहती है। यदि आपको सच्चे अर्थों में जनता का मंत्री बनना है, तो यह आवश्यक है कि आप अपने भूतकाल की संग्रहीत नीतियों का गहन अवलोकन करें और उनकी समीक्षा करें। एक सच्चा जन सेवक वही है जो अपने कार्यों के प्रति उत्तरदायी रहे।

Keywords

political accountability, public service, Indian leaders, social media commentary, educational reform, health care issues, economic disparity, leadership review

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