मन्दिरों एवं धर्म-स्थलों में वीआईपी संस्कृति समाप्त हो

मन्दिरों, धर्मस्थलों एवं धार्मिक आयोजनों में वीआईपी संस्कृति एवं उससे जुड़े हादसों एवं त्रासद स्थितियों ने न केवल देश के आम आदमी के मन को आहत किया है, बल्कि भारत के समानता के सिद्धान्त की भी धज्जियां उड़ा दी है। मौनी अमावस्या महाकुंभ में भगदड़ के चलते तीस लोगों की मौत ने ऐसे मौकों पर कुछ विशेष लोगों को मिलने वाले वीआईपी सम्मान एवं सुविधा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। बात केवल महाकुंभ की नहीं है, बल्कि अनेक प्रतिष्ठित मन्दिरों में वीआईपी संस्कृति के चलते होने वाले हादसों एवं आम लोगों की मौत ने अनेक सवाले खड़े किये हैं। प्रश्न है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले ही कार्यकाल के दौरान वीआईपी कल्चर को खत्म करते हुए लालबत्ती एवं ऐसी अनेक वीआईपी सुविधाओं को समाप्त कर दिया था तो मन्दिरों एवं धार्मिक आयोजनों की वीआईवी संस्कृति को क्यों नहीं समाप्त किया? क्यों महाकुंभ में वीआईपी स्नान के लिये सरकार ने अलग से व्यवस्थाएं की। क्यों एक विधायक अपने पद का वैभव प्रदर्शित करते हुए महाकुंभ में कारों के बड़े काफिले के साथ घूमते एवं स्नान करते हुए, पुलिस-सुविधा का बेजा इस्तेमाल करते हुए एवं सेल्फी लेते हुए करोड़ लोगों की भीड़ का मजाक बनाते रहे? सवाल यह पूछा जा रहा है कि हिंदुओं के धार्मिक स्थलों और आयोजनों में क्यों भक्तों के बीच भेदभाव होता है? वीआईपी दर्शन की अवधारणा भक्ति एवं आस्था के खिलाफ है। यह एक असमानता का उदाहरण है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों पर भी आघात करती है। महाकुंभ हो या मन्दिर, धार्मिक आयोजन हो या कीर्तन-प्रवचन भगदड़ के कारण जो दर्दनाक हादसे होते रहे हैं, जो असंख्य लोगों की मौत के साक्षी बने हैं, उसने वीआईपी कल्चर पर एक बार फिर से नये सिरे से बहस छेड़ दी है। सवाल उठ रहा है कि जब गुरुद्वारे में वीआईपी दर्शन नहीं, मस्जिद में वीआईपी नमाज नहीं, चर्च में वीआईपी प्रार्थना नहीं होती है तो सिर्फ हिन्दू मंदिरों में कुछ प्रमुख लोगों के लिए वीआईपी दर्शन क्यों जरूरी है? क्या इस पद्धति को खत्म नहीं किया जाना चाहिए, जो हिंदुओं में दूरिया का करण बनता है? योगी सरकार ने मौनी अमावस्या के दिन हुए हादसे से सबक लेते हुए भले ही वीआईपी सिस्टम पर रोक लगायी हो, लेकिन इस रोक के बावजूद महाकुंभ में वीआईवी संस्कृति बाद में भी पूरी तरह हावी रही है। महाकुंभ हो या प्रसिद्ध मन्दिर वीआईपी पास एवं दर्शन की व्यवस्था समाप्त क्यों नहीं होती? यह व्यवस्था समाप्त होना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ 7 जनवरी को ही धार्मिक स्थलों पर होने वाली वीआईपी व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े किये हैं। उन्हें ऐसे हासदे की उम्मीद भी नहीं रही होगी। निश्चित ही जब किसी को वरीयता दी जाती है और प्राथमिकता दी जाती है तो उसे वीवीआईपी या वीआईपी कहते हैं। यह समानता की अवधारणा को कमतर आंकना है। वीआईपी संस्कृति एक पथभ्रष्टता है। यह एक अतिक्रमण है। यह मानवाधिकारों का हनन है। समानता के नजरिए से देखा जाए तो समाज में इसका कोई स्थान नहीं होना चाहिए, धार्मिक स्थलों में तो बिल्कुल भी नहीं।इसे भी पढ़ें: महाकुंभ की अद्भुत, अविस्मरणीय, अतुलनीय प्रशासनिक तैयारियां अब शोध-अनुसंधान का विषयदेश की कानून व्यवस्था एवं न्यायालय भी देश में बढ़ती वीआईपी संस्कृति को लेकर चिन्तीत है। मद्रास उच्च न्यायालय की मुदुरै पीठ ने अपनी एक सुनवाई के दौरान कहा भी है कि लोग वीआईपी संस्कृति से ‘हताश’ हो गए हैं, खासतौर पर मंदिरों में। इसके साथ ही अदालत ने तमिलनाडु के प्रसिद्ध मंदिरों में विशेष दर्शन के संबंध में कई दिशा निर्देश जारी किए। राजस्थान में गहलोत सरकार ने भी मन्दिरों में वीआईपी दर्शनों की परम्परा को समाप्त करने की घोषणा की थी कि मन्दिरों में बुजुर्ग ही एकमात्र वीआईपी होंगे। इस तरह की सरकारी घोषणाएं भी समस्या का कारगर उपाय न होकर कोरा दिखावा होती रही है। अक्सर नेताओं एवं धनाढ्यों को विशेष दर्शन कराने के लिए मंदिर परिसरों को आम लोगों के लिये बंद कर दिया जाता है, जिससे श्रद्धालुओं को भारी परेशानी होती है, लोग वास्तव में इससे दुखी होते हैं और कोसते हैं। वीआईपी लोगों को तरह-तरह की सुविधाएं दी जाती है, मन्दिर के मूल परिसर-गर्भ परिसर में दर्शन कराये जाते हैं, उनके वाहन मन्दिर के दरवाजे तक जाते हैं, उनके साथ पुलिस-व्यवस्था रहती है, जबकि आम श्रद्धालुओं को कई किलोमीटर पैदल चलना होता है, भगवान के दर्शन दूर से कराये जाते हैं, उनके साथ धक्का-मुक्की की जाती है। तीर्थस्थलों और गंगा स्नान में वीआईपी संस्कृति की बात कि जाये तो महाकुंभ मेले प्रयागराज, हरिद्वार या वाराणसी जैसे तीर्थस्थलों पर आम श्रद्धालुओं को अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है, लेकिन वीआईपी के लिए अलग घाट बना दिये जाते हैं। जहां आम लोग भीड़ में संघर्ष करते हैं, वहीं खास लोगों के लिए विशेष स्नान व्यवस्था, सुरक्षा घेरा और सुविधाएं मुहैया कराई जाती है। कई बार वीआईपी के स्नान के लिए आम श्रद्धालुओं को घंटों रोका जाता है, जिससे भीड़ में अफरातफरी तक मच जाती है। सवाल ये हैं कि जहां करोड़ों लोग जुट रहे हों, वहां आम श्रद्धालुओं की असुविधा को बढ़ाकर वीआईपी स्नान जैसी व्यवस्था क्यों? वीआईपी स्नान के बेहूदे एवं शर्मनाक प्रदर्शन की टीस महाराज प्रेमानंद गिरि के शब्दों में दिखी जब उन्होंने कहा कि प्रशासन का पूरा ध्यान वीआईपी पर था। आम श्रद्धालुओं को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। उनका आरोप है कि पूरा प्रशासन वीवीआईपी की जी-हुजूरी में लगा रहा, तुष्टीकरण में लगा रहा।मोदी के शासन-काल में हिन्दू मन्दिरों एवं धार्मिक आयोजनों के लिये जनता का आकर्षण बढ़ा है, बात चाहे श्रीराम मन्दिर अयोध्या की हो या महाकुंभ की या ऐसे ही अन्य धर्मस्थलों की, करोड़ों की संख्या में आम लोग इन स्थानों तक पहुंच रहे हैं, लेकिन ईश्वर के दर्शन भी उनके लिये दोयम दर्जा एवं असमानता लिये हुए है। देश की आजादी के बाद सरकार ने कुछ मंदिरों में ट्रस्ट के माध्यम से व्यवस्था अपने हाथों में ली। शुरुआत में तो सभी मं

Feb 18, 2025 - 13:37
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मन्दिरों एवं धर्म-स्थलों में वीआईपी संस्कृति समाप्त हो
मन्दिरों एवं धर्म-स्थलों में वीआईपी संस्कृति समाप्त हो

मन्दिरों एवं धर्म-स्थलों में वीआईपी संस्कृति समाप्त हो

Netaa Nagari, लेखिका: प्रिया शर्मा, सृष्टि मेहरा

वीआईपी संस्कृति का मुद्दा पिछले कुछ समय से चर्चा में है, विशेषकर भारत के धार्मिक स्थानों पर। यह एक ऐसा विषय है जिसका सीधा संबंध धार्मिक आस्था और समानता से है। क्या हमें हमारी पूजा स्थलों पर भी समानता की आवश्यकता नहीं है? यह सवाल आज के भारत में बहुत महत्वपूर्ण है। आज हम इसी विषय पर विचार करेंगे कि कैसे मन्दिरों एवं धर्म-स्थलों पर वीआईपी संस्कृति के प्रभाव को समाप्त किया जा सकता है।

वीआईपी संस्कृति का परिभाषा

वीआईपी संस्कृति का मतलब है कि कुछ व्यक्तियों को उनके पद या सामाजिक स्थिति के कारण विशेष अधिकार और सुविधाएँ दी जाती हैं। यह संस्कृति हमारे धार्मिक स्थलों पर भी देखने को मिलती है, जहाँ कुछ व्यक्तियों को पूजा-अर्चना में विशेष स्थान दिया जाता है, जबकि आम भक्तों को सामान्य स्थानों पर रहना पड़ता है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या हमारी धर्मिक आस्था को भी इस तरह के भेदभाव का सामना करना चाहिए?

धर्म-स्थलों पर वीआईपी संस्कृति का प्रभाव

जब हम मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों पर वीआईपी संस्कृति के प्रभाव की बात करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि इससे आम भक्तों में असंतोष पैदा होता है। उनका मानना है कि भगवान के दरबार में सभी भक्त समान हैं, और किसी को भी विशेष दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। इसके अलावा, यह संस्कृति धार्मिक स्थलों की पवित्रता और आध्यात्मिकता को भी प्रभावित करती है।

वीआईपी संस्कृति के खिलाफ कदम

इस क्रम में कई धार्मिक नेताओं और संगठनों ने वीआईपी संस्कृति के खिलाफ आवाज उठाई है। वे चाहते हैं कि सभी भक्तों को समान रूप से पूजा का अवसर मिले। इसके लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:

  • पूजा स्थलों पर एक समान व्यवस्था की जाए, ताकि सभी भक्त समान रूप से पूजा कर सकें।
  • वीआईपी दर्शन के लिए विशेष टिकट व्यवस्था खत्म की जाए।
  • सामान्य भक्तों को भी पंडितों द्वारा उचित पूजा का अवसर दिया जाए।

समाज में जागरूकता फैलाना

इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाना भी आवश्यक है। लोगों को समझाना होगा कि धार्मिक स्थल सभी के लिए हैं और यहाँ भेदभाव का कोई स्थान नहीं है। इस दिशा में कार्यक्रमों का आयोजन और सामाजिक मीडिया का उपयोग करके समाज में जागरूकता बढ़ाई जा सकती है।

निष्कर्ष

अंत में, यह कहना गलत नहीं होगा कि मन्दिरों एवं धर्म-स्थलों में वीआईपी संस्कृति समाप्त होनी चाहिए। यह केवल हमारे धार्मिक समारोहों की शुद्धता को बनाए रखने में मदद नहीं करेगा, बल्कि सभी भक्तों के बीच एकता और समानता को भी बढ़ावा देगा। चलो, हम मिलकर इस उद्देश्य के लिए काम करें और हमारे धर्म स्थलों को समानता का प्रतीक बनाएं।

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VIP culture, temple equality, religious places, equal worship, social awareness, India temples, spiritual equality

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