किशोरों में बढ़ रही हिंसक प्रवृत्ति गंभीर चुनौती
भारतीय बच्चों में बढ़ रही हिंसक प्रवृत्ति एवं क्रूर मानसिकता चिन्ताजनक है, नये भारत एवं विकसित भारत के भाल पर यह बदनुमा दाग है। पिछले कुछ समय से स्कूली बच्चों में बढ़ती हिंसा की प्रवृत्ति निश्चित रूप से डरावनी, मर्मांतक एवं खौफनाक है। चिंता का बड़ा कारण इसलिए भी है क्योंकि जिस उम्र में बच्चों के मानसिक और सामाजिक विकास की नींव रखी जाती है, उसी उम्र में कई बच्चों में आक्रामकता एवं क्रूर मानसिकता घर करने लगी है और उनका व्यवहार हिंसक होता जा रहा है। कैथल जनपद के गांव धनौरी में दो किशोरों की निर्मम एवं क्रूर हत्या की हृदयविदारक घटना न केवल उद्वेलित एवं भयभीत करने वाली है बल्कि चिन्ताजनक है। चौदह-पंद्रह साल के दो किशोरों की गला रेतकर हत्या कर देना और वह भी उनके हमउम्र साथियों द्वारा, हर संवेदनशील इंसान को हिला देने वाली डरावनी एवं खैफनाक घटना है, जो किशोरों में पनप रहे हिंसक बर्ताव एवं हिंसक मानसिकता का घिनौना एवं घातक रूप है। जिस उम्र में बच्चों को पढ़ाई-लिखाई और खेलकूद में व्यस्त रहना चाहिए, उसमें उनमें बढ़ती आक्रामकता, हिंसा एवं क्रूरता एक अस्वाभाविक और परेशान करने वाली बात है। जाहिर है दसवीं-ग्यारहवीं के छात्रों की क्रूर हत्या हमारे समाज में बढ़ती संवेदनहीनता को भी दर्शाती है। ऐसी कई अन्य घटनाओं में स्कूल में पढ़ने वाले किसी बच्चे ने अपने सहपाठी पर चाकू या किसी घातक हथियार से हमला कर दिया और उसकी जान ले ली। अमेरिका की तर्ज पर भारत के बच्चों में हिंसक मानसिकता का पनपना हमारी शिक्षा, पारिवारिक एवं सामाजिक संरचना पर कई सवाल खड़े करती है। जैसाकि घटना से संबंधित तथ्यों में बताया गया कि हत्या में शामिल युवक धनौरी गांव के ही थे और कुछ दिन पहले किशोरों को धमकाने उनके घर आए थे। मारे गए किशोरों पर हत्या आरोपियों ने आरोप लगाया था कि वे उनकी बहनों से छेड़खानी करते थे। निश्चय ही ऐसे छेड़खानी के कथित आरोप को नैतिक दृष्टि से अनुचित ही कहा जाएगा, लेकिन उसका बदला हत्या कदापि नहीं हो सकती। यह दुखद है कि एक मृतक किशोर अरमान पांच बहनों का अकेला भाई था। घटना से उपजी त्रासदी से अरमान के परिवार पर हुए वज्रपात को सहज महसूस किया जा सकता है। उनके लिये जीवनभर न भुलाया जा सकने वाला दुख एवं संत्रास पैदा हुआ है। बड़ा सवाल है कि जिन वजहों से बच्चों के भीतर आक्रामकता एवं हिंसा पैदा हो रही है, उससे निपटने के लिए क्या किया जा रहा है? पाठ्यक्रमों का स्वरूप, पढ़ाई-लिखाई के तौर-तरीके, बच्चों के साथ घर से लेकर स्कूलों में हो रहा व्यवहार, उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों का दायरा, संगति, सोशल मीडिया या टीवी से लेकर सिनेमा तक उसकी सोच-समझ को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों से तैयार होने वाली उनकी मनःस्थितियों के बारे में सरकार, समाजकर्मी एवं अभिभावक क्या समाधान खोज रहे हैं। बच्चों के व्यवहार और उनके भीतर घर करती प्रवृत्तियों पर मनोवैज्ञानिक पहलू से विचार किए बिना समस्या को कैसे दूर किया जा सकेगा? इसे भी पढ़ें: अफसरों को जेल की सजा से रुक सकेंगे जहरीली शराब जैसे हादसेबहरहाल, इस हृदयविदारक एवं त्रासद घटना ने नयी बन रही समाज एवं परिवार व्यवस्था पर अनेक सवाल खड़े किये हैं। सवाल नये बन रहे समाज की नैतिकता एवं चरित्र से भी जुड़े हैं। निश्चित ही किसी परिवार की उम्मीदों का यूं कत्ल होना मर्मांतक एवं खौफनाक ही है। लेकिन सवाल ये है कि चौदह-पंद्रह साल के किशोरों पर यूं किन्हीं लड़कियों को छेड़ने के आरोप क्यों लग रहे हैं? पढ़ने-लिखने की उम्र में ये सोच कहां से आ रही है? क्यों हमारे अभिभावक बच्चों को ऐसे संस्कार नहीं दे पा रहे हैं ताकि वे किसी की बेटी व बहन को यूं परेशान न करें? क्यों लड़कियों से छेड़छाड़ की अश्लील एवं कामूक घटनाएं बढ़ रही है। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक शिक्षा का वह पक्ष उपेक्षित हो चला है, जो उन्हें ऐसा करने से रोकता है? क्या शिक्षक छात्रों को सदाचारी व नैतिक मूल्यों का जीवन जीने की प्रेरणा देने में विफल हो रहे हैं? हत्या की घटना हत्यारों की मानसिकता पर भी सवाल उठाती है कि उन्होंने क्यों सोच लिया कि छेड़खानी का बदला हिंसा एवं क्रूरता से गला काटना हो सकता है? धनौरी की घटना के पूरे मामले की पुलिस अपने तरीके से जांच करेगी, लेकिन किशोर अवस्था में ऐसी घटना को अंजाम देने के पीछे बच्चे की मानसिकता का पता लगाना भी ज्यादा जरूरी है। दरअसल, दशकों तक बॉलीवुड की हिंदी फिल्मों ने समाज एवं विशेषतः किशोर पीढ़ी में जिस अपसंस्कृति का प्रसार किया, आज हमारा समाज उसकी त्रासदी झेल रहा है। इसमें दो राय नहीं कि किशोरवय में राह भटकने का खतरा ज्यादा रहता है। अब तक हिन्दी सिनेमा से समाज के किशोरवय और युवाओं में गलत संदेश गया कि निजी जीवन में छेड़खानी ही प्रेम कहानी में तब्दील हो सकती है। हमारे टीवी धारावाहिकों की संवेदनहीनता ने गुमराह किया है। बॉक्स आफिस की सफलता और टीआरपी के खेल ने मनोरंजक कार्यक्रमों में ऐसी नकारात्मकता एवं हिंसक प्रवृत्ति भर दी कि किशोरों में हिंसक एवं अराजक सोच पैदा हुई। इंटरनेट के विस्तार और सोशल मीडिया के प्रसार से स्वच्छंद यौन व्यवहार का ऐसा अराजक एवं अनियंत्रित रूप सामने आया कि जिसने किशोरों व युवकों को पथभ्रष्ट एवं दिग्भ्रमित करना शुरू कर दिया। आज संकट ये है कि हर किशोर के हाथ में आया मोबाइल उसे समय से पहले वयस्क बना रहा है। जिस पर न परिवार का नियंत्रण है और न ही शिक्षकों का। ‘मन जो चाहे वही करो’ की मानसिकता वहां पनपती है जहां इंसानी रिश्तों के मूल्य समाप्त हो चुके होते हैं, जहां व्यक्तिवादी व्यवस्था में बच्चे बड़े होते-होते स्वछन्द हो जाते हैं। अर्थप्रधान दुनिया में माता-पिता के पास बच्चों के साथ बिताने के लिए समय ही नहीं बच पा रहा। आज किशोरों एवं युवाओं को प्रभावित करने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म व नये-नये एप पश्चिमी अपसंस्कृति से संचालित हैं। इन पर अश्लीलता और यौन-विकृतियों वाले कार्यक्रमों का बोलबाला है। ऐसे कार्यक्रमों की बाढ़ हैं जिनमें हमारे पारिवारिक व साम

किशोरों में बढ़ रही हिंसक प्रवृत्ति गंभीर चुनौती
सारांश: भारतीय बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति एवं क्रूर मानसिकता चिंताजनक है। नये भारत की छवि को धूमिल करने वाला यह एक गंभीर मुद्दा है।
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लेखिका: प्रियंका शर्मा, संजना रॉय एवं दीप्ति मेहता
टीम नेटआनागरी
परिचय
हाल के दिनों में भारत में किशोरों के बीच हिंसक प्रवृत्तियों में वृद्धि एक गंभीर चिंता का विषय बन चुकी है। कैथल जनपद के गांव धनौरी में दो किशोरों की निर्मम हत्या ने समाज को एक गहरे संकट में डाल दिया है। ऐसी घटनाएँ न केवल समाज की मानसिकता को दर्शाती हैं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि किशोरों का मनोबल किस तरह से बिगड़ता जा रहा है।
घटनाक्रम की पृष्ठभूमि
धनौरी में हुई इस दिल दहला देने वाली घटना में, 14-15 साल के दो किशोरों को उनके ही साथियों द्वारा गला रेतकर हत्या कर दी गई। हत्या करने वाले किशोरों का आरोप था कि मारे गए किशोर उनकी बहनों के साथ छेड़खानी कर रहे थे। यह स्पष्ट है कि ऐसी हिंसा कभी भी उचित नहीं ठहराई जा सकती, और समाज को इस पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है।
हिंसा की वजहें
कारणों की बात करें, तो यह आवश्यक है कि हम समझें कि किशोरों में हिंसा की प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है। इसका एक बड़ा कारण शिक्षा और परिवार की संरचना का बिगड़ना हो सकता है। कई अध्ययनों से पता चलता है कि किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य पर सामाजिक मीडिया, फिल्में और खेलों का गहरा प्रभाव पड़ता है। हमारे समाज में ऐसी मानसिकता विकसित हो चुकी है कि छेड़खानी का बदला हिंसा से लेना सामान्य समझा जा रहा है।
समाज और शिक्षा प्रणाली की भूमिका
किशोरों की मानसिकता को समझने के लिए परिवार और शिक्षा प्रणाली की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यदि हम किशोरों को संवेदनशीलता, करुणा और नैतिक मूल्यों से परिचित नहीं कराते, तो हमें ऐसे घातक परिणामों का सामना करना पड़ेगा। विशेषकर, आज के समय में जब किशोरों के हाथ में मोबाइल फोन और सोशल मीडिया की पहुंच है, उस स्थिति में उन्हें सही दिशा में मार्गदर्शन करना बहुत महत्वपूर्ण है।
बॉलीवुड का प्रभाव
भारतीय सिनेमा ने भी इस विषय पर एक बड़ा प्रभाव डाला है। कई फिल्मों में हिंसा को सामान्यीकृत किया गया है, और ऐसा नकारात्मक कंटेंट किशोरों की सोच को प्रभावित करता है। उन्हें यह एहसास नहीं होता कि यह केवल फिल्मों का एक हिस्सा है और असली जिंदगी में इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
समाधान की ओर
समाज और सरकार को इस समस्या का समाधान ढूंढने की आवश्यकता है। क्या हमारी शिक्षा प्रणाली नैतिक शिक्षा को प्राथमिकता नहीं देती? क्या माता-पिता अपने बच्चों को उचित संस्कार नहीं दे पा रहे हैं? हमें इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।
निष्कर्ष
किशोरों की बढ़ती हिंसा एक गंभीर समस्या है जो न केवल उन्हें बल्कि सम्पूर्ण समाज को प्रभावित कर रही है। हमें अपनी मानसिकता में बदलाव लाने की आवश्यकता है, ताकि हम एक स्वस्थ और सकारात्मक वातावरण का निर्माण कर सकें। हमें यह समझना होगा कि हिंसा का उत्तर कभी भी हिंसा नहीं हो सकता।
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