क्या भारत के पास शक्तिशाली बनने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचा है? आखिर क्यों और कैसे?

जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भारतीय हिंदू समाज की एकता का आह्वान करते हुए यह कहा है कि भारत को इतनी सैन्य और आर्थिक शक्ति से संपन्न बनाया जाए कि दुनिया की कई शक्तियां मिलकर भी उसे जीत न सकें, तो पहला सवाल यही उठता है कि क्या भारत के पास पावरफुल बनने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है? क्या भारत, रूस-अमेरिका-चीन के प्रेम और युद्ध त्रिकोण में अपनी अव्यवहारिक नीतियों-सामरिक रणनीतियों की वजह से बुरी तरह से घिर चुका है, जो उसके पाकिस्तान-बंगलादेश सरीखे जलनशील पड़ोसियों को उकसाते रहते हैं? ऐसा इसलिए कि चीन-पाकिस्तान-बंगलादेश की शह पर कभी श्रीलंका, कभी मालदीव, कभी म्यामांर, कभी नेपाल, कभी अफगानिस्तान, कभी भूटान आदि पड़ोसी देश भी भारत विरोधी एजेंडे के तहत कार्य करते हुए देखे सुने जाते हैं। कभी लोकतंत्र की आड़ में अमेरिका अंडरवर्ल्ड को, माओवादी वामपंथ के नाम पर चीन नक्सलियों को और गजवा-ए-हिन्द के नाम पर पाकिस्तान-बंगलादेश अपने अरब देशों या दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के शह पर आतंकवादियों को मदद देते रहते हैं, जो भारत में नशा के कारोबार, फार्मा ड्रग्स के धंधे और हथियारों की तस्करी को बढ़ावा देने के साथ-साथ यहां कत्लेआम मचाते रहते हैं, ताकि हिन्दू समाज भयभीत और कमजोर होता रहे।वहीं, तमाम विदेशी ताकतें विविधता में एकता की मिसाल समझे जाने वाले हिंदुओं के खिलाफ कभी जातीय युद्ध और कभी धार्मिक युद्ध के हालात पैदा करते रहते हैं। इसके लिए ये लोग यहां के बहुदलीय लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल करने से भी गुरेज नहीं करते और यहां की क्षेत्रीय और भाषाई भावनाओं को भी भड़कवाते रहते हैं। वहीं, दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि भारतीय प्रशासन के पास इन स्थितियों से निबटने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं है, क्योंकि वह इस्लामिक और ब्रिटिश नीतियों को ही थोड़े फेरबदल के साथ लागू करके चलने को अभिशप्त है। इसे भी पढ़ें: सरसंघचालक की पहल से बदल सकती है जातिवाद की तस्वीरदेखा जाए तो इसके लिए विभाजनकारी सोच वाली भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति और उस पर बना हुआ संविधान भी कम जिम्मेदार नहीं है। आलम यह है कि कभी जिन नीतियों के लिए जनसंघ, भाजपा, आरएसएस व उसके मातहत संगठन कांग्रेसियों, वामपंथियों, समाजवादियों आदि को कोसा करते थे, आज एनडीए की आड़ में उन्हीं नीतियों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे भारत की अंतरराष्ट्रीय स्थिति 'कमजोर' हुई है और वैश्विक, राष्ट्रीय और सूबाई अंतर्विरोध बढ़े हैं।इन सब बातों के दृष्टिगत जब कभी भी आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत मुंह खोलते हैं और गौ हत्या, आरक्षण, जातीय जनगणना, राष्ट्रवाद, स्वदेशी, हिंदुत्व आदि सुलगते हुए मुद्दों पर बोलते हैं तो आरएसएस की विवशता और दिशाहीनता उजागर हो जाती है। क्योंकि जिन मुद्दों को लेकर उसका गठन 100 साल पहले किया गया था, उसके राजनीतिक मुखौटों ने कॉन्वेंट एजुकेटेड भारतीय नौकरशाहों-न्यायविदों-उद्योगपतियों की सलाह पर उसे भटका दिया है। ऐसे में जब वह ईसाइयों और मुस्लिमों के बाद दुनिया की तीसरी बड़ी आबादी वाले हिंदुओं को लक्षित करके यह कहते हैं कि जब हिंदू ताकतवर होंगे, तभी दुनिया उनकी परवाह करेगी, तो कुछ गम्भीर सवाल का उठना लाजिमी जाता है। पहला, भारतीय राष्ट्रवाद को जब देशी पूंजीपतियों के माध्यम से विदेशी पूंजीपतियों के यहां गिरवी रखा जा रहा था तो इसकी मुखालफत आरएसएस ने क्यों नहीं की? दूसरा, पिछली तीन पारियों से केंद्र में भाजपा काबिज है, फिर भी हिन्दू समाज को मजबूत करने वाले जाति-भाषा-क्षेत्र विरोधी कानून क्यों नहीं बनवाए गए? तीसरा, मोहन भागवत के बहुतेरे ऐसे बयान गिनाए जा सकते हैं, जिससे उनके वैचारिक अंतर्विरोधों का खुलासा होता है और स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह विशाल हिन्दू समुदाय के हित की भाषा नहीं, बल्कि कथित तौर पर धर्मनिरपेक्ष भारत सरकार के लिए सत्ता संतुलन बनाने और जन असंतोष को दूर करने के लिए सेफ्टी वॉल्व का काम कर रहे हैं। आखिर कभी कांग्रेस भी तो गोरे अंग्रेजों के लिए ऐसा ही किया करती थी और आज भागवत भी काले अंग्रेजों के पक्ष में ऐसा ही करने के दोषी समझे जा रहे हैं। यह बात उन्हें या उनके चमचों को बुरी लग सकती है, लेकिन साँच को आंच क्या? वहीं, जिस तरह से हाल ही में उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि शक्ति के साथ सगुण और धर्म-निष्ठा भी जुड़ी होनी चाहिए, क्योंकि सिर्फ क्रूर बल दिशाहीन होकर अंध हिंसा में बदल सकता है। बता दें कि भागवत ने आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर को दिए एक इंटरव्यू में कहा है कि, 'देश की सीमाओं पर दुष्ट शक्तियों की कुटिलता हम लगातार देख रहे हैं, इसलिए भारत के पास शक्तिशाली बने रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।' उससे आगे उन्होंने यह भी कह दिया कि हिंदू जब ताकतवर होंगे, तभी दुनिया उनकी परवाह करेगी। ऐसे में सवाल उठता है कि हिंदुओं को ताकतवर बनाने के लिए उन्हें अनिवार्य सैन्य शिक्षा देने की पहल उन्होंने क्यों नहीं करवाई! उन्होंने हिंदुओं को उद्यमी बनाने के सार्थक प्रयत्न क्यों नहीं करवाए। क्योंकि जाति-भाषा-क्षेत्र विहीन हिन्दू समाज की वकालत आखिर क्यों नहीं की? और कि भी तो उसपर उसकी सरकारों ने अमल क्यों नहीं किया? उनकी सरकारों ने हिंदू विरोधी पाकिस्तानियों-बंगलादेशियों  के अस्तित्व क्यों नहीं समाप्त करवाए, जो पूरी दुनिया में हिंदुओं के खिलाफ विषवमन करते रहते हैं।हालांकि, देर आयद दुरुस्त आयद की तरह मोहन भागवत ने यह कहा है कि, 'हमें शक्ति के लिए सतत प्रयास करना चाहिए। जैसा कि हम अपनी दैनिक प्रार्थना में गाते हैं-'अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिम्' यानी हमें ऐसी शक्ति दीजिए कि संसार में हम अजेय रहें। उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत को अपनी रक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं होना चाहिए। सच्ची शक्ति अंतःस्थ होती है। हमें अपनी रक्षा स्वयं करने में सक्षम होना चाहिए। कोई भी हमें जीत न सके, चाहे कई शक्तियां एक साथ क्यों न आ जाएं। जैसा कि उन्होंने चेताया है कि, 'दुनिया में ऐसी दुष्ट

May 26, 2025 - 18:37
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क्या भारत के पास शक्तिशाली बनने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचा है? आखिर क्यों और कैसे?
क्या भारत के पास शक्तिशाली बनने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचा है? आखिर क्यों और कैसे?

क्या भारत के पास शक्तिशाली बनने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं बचा है? आखिर क्यों और कैसे?

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लेखकों: दीप्ति शुक्ला, सुमन तिवारी, टीम नेटआनागरी

प्रस्तावना

जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत भारतीय हिंदू समाज की एकता का आह्वान करते हुए यह कहते हैं कि भारत को पर्याप्त सैन्य और आर्थिक शक्ति से संपन्न बनाया जाए कि दुनिया की शक्तियां उसे जीत न सकें, तो सवाल उठता है कि क्या भारत के पास केवल शक्तिशाली बनने का ही विकल्प बचा है? वास्तव में, क्या भारत की नीति, या उसकी सामरिक दृष्टि, अन्य चुनौतियों के समक्ष विफल हो चुकी है?

क्यों हिंदू समाज को एकीकृत करने की आवश्यकता?

भारत अब कई जटिल राजनीतिक और वैश्विक समस्याओं से जूझ रहा है। पड़ोसी देशों के पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे जलनशील तत्वों के कारण स्थिति और भी गंभीर होती जा रही है। भागवत के अनुसार, हम चीन-पाकिस्तान की साज़िशों पर नजर रखते हुए एकजुटता का आवाहन कर रहे हैं। हालात हमेशा से सरल नहीं होते; विदेशियों की गतिविधियाँ हमारे लोकतांत्रिक ढांचे के लिए खतरा बनी रहती हैं।

संभावित विकल्प और समाधान

जैसा कि भागवत ने अपने साक्षात्कार में कहा है, 'हमें अपने आत्मनिर्भरता की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।' क्या भारत को अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों पर निर्भरता खत्म करते हुए अपनी सैन्य स्थिरता और आत्मनिर्भरता को विकसित करने की कोशिश करनी चाहिए? गैर-सरकारी संगठनों तथा भारतीय प्रशासन को इससे समन्वय करके ठोस नीति तैयार करनी होगी।

क्या आरएसएस जैसे संगठनों को मौलिकता के साथ कार्यक्रमों और नीतियों का समन्वय करना चाहिए जिससे भारतीय संस्कृति और हिंदुत्व की रक्षा हो सके? विकसित देशों की सफलताओं से सीख लेकर हमें अपने अंदर वैचारिक दृढ़ता लाने की आवश्यकता है।

भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति की जिम्मेदारी

भारतीय लोकतंत्र की मूल विशेषताएँ, जैसे कि कई विचारधाराओं का सहिष्णुता, हमें सही दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर सकती हैं। परंतु, इससे जुड़ी दुविधाएँ भी जटिल हैं। इतिहास ने हमें दिखाया है कि आपसी फूट किस प्रकार राष्ट्र की समृद्धि को अवरुद्ध करती है। जब तक हम इन समस्याओं को सही तरह से नहीं समझते, तब तक विकास की राह में बाधाएं बनी रहेंगी।

निष्कर्ष

हमें यह स्पष्ट करना चाहिए कि किसी भी समाज की शक्ति उसके एकीकरण में निहित होती है। जैसा कि भागवत ने कहा है, 'जब हिंदू समाज मजबूत होगा, तब दूसरों को हमारी परवाह होगी।' इसके अलावा, भारत को सिर्फ शक्तिशाली होने की नहीं, बल्कि सामंजस्यपूर्ण वैश्विक समस्याओं से निपटने के लिए एक ठोस और व्यापक दृष्टि की आवश्यकता है। भारत को अंततः एकता, सहयोगिता और विकास की राह पर चलना होगा। यह चुनौतियाँ हमें मजबूत बना सकती हैं, बशर्ते हम मिलकर उन पर काम करें।

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